गुरुदेव का जन्म - जीवन परिचय
वि.स. 1883 की पौष सुदी 7 के दिव्य दिन रत्नो के पारखी कुल में पिता श्री ऋषभदास जी के परिवार में मातु श्री केसर बाई की रत्नकुक्षी से भरत पुर (राज.) में जन्म लिया | स्नेहीजनों ने नामकरण किया - 'रत्नराज ' |
सुधर्मास्वामी की पट्ट परम्परा के 67 वे आचार्य श्री प्रमोद सूरीश्वर जी म.सा. से वैराग्य वासित बन विरतिपथ पर विचरण हेतु तत्पर बने |
वि. स. 1904 वैशाख सुदी पंचमी को शूरवीरों की धरा मेवाड़ पर पूज्यपाद मुनिराज श्री हेम विजय जी म.सा. के वरद हस्त से रजोरहण स्वीकार कर अपनी श्रमण जीवन यात्रा प्रारम्भ की |
स्व - पर अनेक गच्छीय गुरु भगवंतो की शुभ निश्रा - शुभ निर्देशन से गुर्वाज्ञा के अनुसार स्वाध्याय को अपने जीवन का मुख्य आधार स्तम्भ बनाया |
वैशाख सुदी 3 को उदयपुर में बृहद -दीक्षा पन्यास पद से सुशोभित हुए |
यतियों के पाखण्ड , क्रिया के प्रति उदासीनता आदि अनेक जिनाज्ञा विरुद्ध कृत्य जानकर स्वगुरु श्रीमद विजय प्रमोद सूरीश्वर जी म.सा. के समक्ष आहोर (राज) में क्रियोद्धार की भावना व्यक्त की |
गुरु निश्रा में 1924 , वैशाख सूद 5 , आहोर (राज.) में सूरिपद से अलंकृत हुए |
क्रिया शुद्धि-आत्म विशुद्धि मोक्ष सिद्धि की त्रिपदी को लक्ष्य में रखकर आषाढ़ वदी 10 , वि. स. 1925 , बुधवार को जावरा ( म.प्र. ) में क्रियोद्धार कर उन्नीसवीं सदी के सर्व श्रेष्ठ 'क्रियोद्धारक ' बने |
श्री धनविजय (धन चंद्र सूरी जी ) , श्री प्रमोद रुचि जी आदि 40 से अधिक श्रमणों एवं श्री अमर श्री जी आदि 50 से अधिक श्रमणीवर्यो को रजोरहण प्रदान कर 'संयमदाता सूरिवर ' बने |
अनेक जिन प्रसादों में जिन प्रतिमाओं की अंजन शलाका प्रतिष्ठा कर प्रकर्ष प्रतिष्ठाचार्य बनकर एक कर्तव्यनिष्ठ 'दर्शन विशुद्धक' बने |
अनेक ज्ञान भंडारों की संस्थापना एवं श्रुतलेखन , पूजा स्तवन -सज्झाय-स्तुति रचना , ग्रन्थ सृजन आदि के रूप में 'ज्ञान प्रचारक' बने |
श्री अभिदान राजेंद्र कोष जैसे विपुल श्रुत निधि ग्रन्थ सैम विश्वकृति की अनुपम रचना द्वारा ' विश्व पूज्य ' बने |
अनेक भक्त जनों के ह्रदय में प्रभु सम स्थान बनाने के कारण आप सदैव ध्यान करने योग्य 'प्रातः स्मरणीय ' बने |
श्री मोहन खेड़ा महातीर्थ की अनुपम भेंट जैन संघ को समर्पित कर आप 'तीर्थ संस्थापक ' बने |
कोरटा , स्वर्ण गिरी , भांडवपुर आदि अनेक तीर्थो एवं ग्राम -नगरों के जिनालयों के जीर्णोद्धार की परम प्रेरणा करके आप 'जीर्णोद्धार प्रेरक ' बने |
ध्यान , योग , जप , तप की अक्षय -अखंड -असीम श्रंखला को प्रतिपल - प्रतिक्षण अपने जीवन में स्थान देने के कारण गुरुदेवेश श्री ध्यानेश्वर-योगेश्वर -जपेश्वर -तपेश्वर बनें और सतत ४० वर्षो तक आचार्य पद पर सुशोभित रहकर जिनशासन के राजा होने के कारण 'राजेश्वर ' बने |
देव -देवी उपासना में मस्त बने जैन संघ को जिन भक्ति का सच्चा मार्ग बताकर ' त्रि -स्तुतिक मत पुनरुद्धारक बने |
वि. स. १९६३ के पौष सुदी षष्ठी को राजगढ़ (धार) में ॐ अर्हं नमः के ध्यान में निमग्न बनकर नश्वर देह का त्याग कर परम पथ की यात्रा हेतु प्रयाण किया |
गुरुभूमि - तीर्थ भूमि - पुण्य भूमि - धर्म भूमि -त्याग भूमि श्री मोहन खेड़ा तीर्थ में पौष सुदी सप्तमी के दिन हजारों गुरुभक्तों की उपस्थिति में श्री मोहन खेड़ा तीर्थ की पावन भूमि पर आपका अग्नि संस्कार हुआ |