भोजनशाला
तीर्थ स्थापना के कुछ समय पशचात तक यहाँ आने वाले यात्रियों की संख्या बहुत कम थी, बाहर से आनेवाले यात्रियों को प्रायः राजगढ़ वासी त्रिस्तुतिक श्रावकगण अपने घर भोजन हेतु आमंत्रित कर लिया करते थे | स्वामीवात्सल्य आदि के लिए मंदिर के बाहरी और एक टिन शेड था , जिसमे लोग भोजनादि बनाया करते थे | तीर्थ की ख्याति फेलने के साथ ही आने वाले यात्रियों की संख्या में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगी तो यह महसूस किया गया की तीर्थ भूमि पर एक भोजनशाला प्रारंभ की जानी चाहिये | सरत (अमरसर –राज.) निवासी सुश्रावक सर्व श्री तिलोकचंदजी , नरसिंगमलजी ,पुखराजजी ,परखचंदजी सांवलचन्दजी ने अपने पिताश्री श्री प्रतापचंदजी व माता श्रीमती धर्मादेवी की पुण्य स्मृति में श्री राजेंद्र जैन आयंबिल शाला भवन का निर्माण श्री यतीन्द्र चोक के पास कराया एव भोजनशाला वहा प्रारंभ हुई | इसी भवन से भीनमाल (राज.) निवासी श्रीमति सोनीबाई मूलचंदजी के सोजन्य से यात्रियों को भाता जाना प्रारंभ किया गया | कुछ वर्षो बाद तीर्थ दर्शन हेतु आने वाले यात्रियों के अनुपात में यह स्थान भी छोटा लगने लगा | अतः आचार्य श्रीमद विजय विध्याचंद्र सुरिश्वरजी म.सा. की प्रेरणा से भीनमाल निवासी सर्व श्री बाबूलालजी भंवरलालजी, घेवरचंदजी सुखराजजी नाहर ने श्री आदिनाथ राजेंद्र जैन श्रीमती शांतिदेवी बाबुलालजी नाहर भोजनशाला का निर्माण कराया | इस भोजनशाला का शुभारम्भ संवत २०४० की गुरु सप्तमी , १० जनवरी १९८४ को हुआ | भाते की व्यवस्था काफी समय तक पुराने भवन में चलती रही | बाद में इसे भी नये भवन में स्थानांतरित कर दिया गया | इस आधुनिक उपकरणों से युक्त विशालकाय भोजनशाला के भोजन कक्ष का आकर लगभग ४००० वर्ग फिट है | जिसमे लगभग ५०० यात्री एक साथ बैठकर भोजन कर सकते है | प्रतीक्षा हेतु भी एक विशाल हाल है ,इसके अतिरिक्त इस भवन में पाकशाला ,भंडारगृह व कार्यालय भी है | भोजन व भाता की व्यवस्था सभी यात्रियों हेतु निशुल्क है | इसके व्यय की व्यवस्था हेतु सन १९९५ से कायमी तिथी की योजना प्रारंभ की गई जिसमे एक समय के भोजन का नखरा रु.११११/- रखा गया अर्थात इतनी राशी देकर कोई भी श्रावक अपनी पसंद की तिथी को सभी यात्रियों को भोजन कराने का लाभ ले सकता था | बढते हुये व्यय को देखते हुए आगे चलकर इस का नखरा बढाकर ११,१११/- रु किया गया | इस भोजनशाला के अतिरिक्त विद्याविहार धर्मशाला में एक रसोड़ा है | इसका उपयोग तीर्थ पर आनेवाले वे यात्री संघ करते है जो अपने संघ का भोजन स्वयं बनाना चाहते है | इन संघो को आवश्यक साधन भोजनशाला द्वारा उपलब्ध कराये जाते है |
गुरु सप्तमी भोजनशाला
गुरु सप्तमी के पावन अवसर पर आने वाले अपार गुरु भक्त समुदाय को नियमित भोजनशाला में भोजन करा पाना संभव नहीं था | अतः इस पर्व पर पहले खुले मैदान में (जहाँ वर्तमान भोजनशाला है ) टेंट लगाकर भोजन कराया जाता था | वर्ष १९८८ में गुरु सप्तमी भोजनशाला का निर्माण किया गया | समय समय पर इसका विस्तार होता रहा है | वर्तमान में यह भोजनशाला विस्तृत है | इस भोजनशाला में हजारो लोगो के लिए भोजन बनाने व भोजन करने की सुविधा है | प्रतिवर्ष गुरु सप्तमी के अवसर पर आयोजित पांच दिवसीय समारोह में भाग लेने वाले लाखो लोगो हेतु तथा समय समय पर होने वाले स्वामीवात्सल्य , नोकारसी एवं आने वाले बड़े यात्री संघो की भोजन व्यवस्था यही की जाती है |